रविवार, 13 जुलाई 2025

मेरे मृत्युंजय

 कर दिया है मैने

अपना सारा जीवन

तेरे चरणों में अर्पण

मुझे किसका लागे डर?

अब किसका लागे भय?

मेरे मृत्युंजय मेरे मृत्युंजय....

मेरा रास्ता भी तू है

मेरा मंजिल भी तू है

मेरे सारे अड़चनों का

समाधान भी तू है

तेरे रहते मुझे काहे का संशय

मेरे मृत्युंजय मेरे मृत्युंजय....


तेरे सिवा बाबा

कौन है मेरा यहां?

तेरे बिना इस जग में

मैं जाऊं कहां?

तेरा दर ही है मेरा निलय

मेरे मृत्युंजय मेरे मृत्युंजय....


तू ही पालनहार

तू ही तारणहार है

तू ही रचता है दुनिया

तू ही करता संहार है

तू ही प्रारंभ तू ही प्रलय

मेरे मृत्युंजय मेरे मृत्युंजय....


जिसका साथ हो ले तू,

वह निर्बल नहीं रहता

जिंदगी के राहों में

निष्फल नहीं रहता

होती नहीं कभी उसकी पराजय

मेरे मृत्युंजय मेरे मृत्युंजय....

साक्षात् काल का,

एक तू ही तो काल है,

बाबा त्रिकाल दर्शी

कालों का महाकाल है

यम को भी देता तू ही अभय

मेरे मृत्युंजय मेरे मृत्युंजय....

                  –: दाता राम नायक "DR"

                      14/07/2025

गुरुवार, 27 मार्च 2025

एसो के चुनई कका

संगवारी हो, ऐसों हमन सब्बो अपन-अपन के ठऊर-ठिकाना के आधार मं गाँव सरकार  अऊ नगर सरकार चुनेन। सब्बो जानत हव चुनई के बखत मं कइसे माहौल रथे; चुनाव आचार संहिता लगय के पहिली अऊ चुनाव परिणाम के पाछु के माहौल ल संक्षिप्त लईन मं लिखे के परयास करे हव, पढ़ के कइसे लागिस कमेन्ट करके जरुर बताहू:-

***चुनई आचार संहिता के पहिली***

 एसो के चुनई कका, निपटहि कइसे जान ।
कुकुर घलों पूछे नही, अहु  पाही  गा मान ।१। 
चलहि लहर अब बोट के, राज मं जोर दार।
सुकमा  ले  कोरिया,  कस  के  ठप्पा  मार।२।
पांच बछर के पाछु मं, मउका  आइस  फेर।
खींच तान के संग मं, लोभ  के  लगहि  ढ़ेर।३।
गरिभा रहे कि गौटियां, सब्बो ऑफर पांय। 
अनपढ़ घलो पढ़े लिखे, ऑफर ना ठुकरांय।४।
पांचों बछर बिकास बर, जोन जोन नरियांय। 
दु गुरिया नि पाहिं कका, त बोट देय नि जांय।५।
माया   अपरंपार    हे,   माया   जाल   चुनाव।
बांचें नि सकय कोन्हु घर, शहर होय या गांव।६।
कोन  समझहि देख कका, मोर लिखे हे गीत।
बिकास अउ इ बिसोय मं, काकर होही जीत।७।
सोच समझ के ही दिहा, अपन अपन के बोट।
नि लिहा संगी हो बोट बर,  कुकरी  दारू नोट।८।


***चुनई आचार संहिता के पाछु***

एसो  के चुनई  कका,  निपटिस कइसे जान ।
साम दाम अउ भेद के, छुटिस धनुष ले बान ।१।
आनी बानी के दिखिस,  नेता  मन  के   रंग ।
गोठ  बात  रेंगे  फिरे,  सबके  बदलिस  ढंग ।२।
मान गोन कस के करिन, करिन सबो जोहार ।
भइदा  फलना   छाप   मं,  देबे   ठप्पा   मार ।३।
संगी  इ  कली  काल मं, कतक मान के दाम ।
गड्ढा  पाटे  बोट  के,  दाम करिस  बड़  काम ।४।
सब्बो  अन  फेंकाय  हे,  दोन्नों   हाथ   रपोट ।
आंखि कान मुंदाय गिस,  पानी   परगे   बोट !५!
सब परतासी मन थहिन, एक  दुसर  के भेद ।
अब्बड़ परयास ले करिन, बोट  बैंक  मं  छेद ।६।
जीत हार तिरिया कका, करि थोरकुन विचार ।
बिक गिस जेकर बोट गा,  तेकर  तन  बेकार ।७।
पंच   सरपंच   संग   मं,  चुन   लेन   महापौर ।
देवत  हव   शुभ  कामना,  लानव  नावा  दौर ।८।
                    -: दाता राम नायक "DR"



सोमवार, 2 सितंबर 2024

पोरा तिहार

सब्बो संगी मन ल राम राम, जय जोहार

संगी हो, आजकाल अंगरेजी भाखा हर अब्बड़ चलत हे अऊ फुलत-फलत हे। कोट-कछेरी, अस्पताल, इस्कूल-कालेज, नौकरी-चाकरी सब्बो जगह अंगरेजी के अब्बड़ गुन हे। जोन मनखे हर अंगरेजी नई जान पात हे तेहर पढे-लिखे बेड़ा हो जात हे समझव। देश-विदेश, सहर-नगर, गाँव-गंवई सब अन एखर बोलोइया-समझोइया हावे। जोन ल हिंदी गोठियाय हर मुड़ पीरा हो जाथे, तहू एक्को दू सबद तो अंगरेजी मारेच डारथे। अंगरेजी के महिमा काबर नई बाढ़ही, अनतररास्ट्रीय इस्तर के भाखा हावे। वैश्विक इस्तर म देश के परगति उन्नति के बर अंगरेजी ल तिरयाय नई जा सकय, ए तो सनसार भर म गोठ-बात ले जोड़े के सुथियार बन गे हावे। लेकिन संगी हो, ई अंगरेजी के हमन जतकी पाछू पडत जात हन ओतकी हमर हिंदी भाखा हर बिगड़त जात हावे। हिंदी पट्टी के रहोइय्या होके घलो सही हिंदी नई बोल पात हन अऊ संगे संग हमर गुरतुर गुरतुर छत्तीसगढ़ी बोली नठात जात हावे। एकर एके कारन हे संगवारी, कि हमर पुरखौती बोली-भाखा मन ल हमी मन हीन समझत हन अऊ बोलचाल म गोठियाय बर लजात हन। एखर ले अऊ बड़खा गलती का होत हे जानत हव? छत्तीसगढ़ी सबद मन के हिन्दीकरण के चोचला म अरथ के अनअरथ करके। कैसे? बतावत हो..



          आभी सोशल मीडिया के चलन जोरदार चलत हावे, कुछुज तीज-तिहार, मंगल कारज, घटना घटत हे, तेला सोशल मीडिया म भेजे के हड़बड़ी सब्बो ल हावे। अब ई हड़बड़ी म का गड़बड़ी होवत हे कि तीज-तिहार तो हमर छत्तीसगढ़ राज के हावे, जेकर छत्तीसगढ़ी नाम हावे अऊ ओकर एकदम रोक्का अरथ घलो हावे। आब होवत ई हे कि हमन ला सोशल मीडिया म भेजना ही हावे, नई भेजबो त चारा नई पचय, लेकिन असमंजस म घलो हन कि छत्तीसगढ़ी म भेजबो त मुरुख कहाबो क के, अऊ हमर आधुनिक इस्टाइल वाला मितान मन का किही तेकर लाज सरम घलो हावे। त ई बखत म का होथे, हमरेच मांझा के कोन्हू एकोझन ढेढ़ होसियार संगी हर छत्तीसगढ़ी नाम ल हिंदी म बलदे के परयोग करथय अऊ ओकर देखा देखि म हमन सब्बो झन बिना सोच विचार के भकाभक कॉपी-पेस्ट कर देथन, पोस्ट पोस्टी करकरि के तिहार मान दारथन। लेकन संगी हो, ई सब के चक्कर म हमन अरथ के अनअरथ कर देत हन। जेकर अरथ छत्तीसगढ़ी म आने होथे ओला हिन्दीकरण के परियास म आने कर देत हन। एक ठी आभी आभी के ताजा ताजा फरेश उदहारण देवत हव।

          संगी हो हर बरस भादों महिना के अमाश के दिन हमर छत्तीसगढ़ी राज म पोरा तिहार मनाय के चलन पुरखौती ले चलत आत हवय। ऐसों घलो सम्मार के दिन अमाश पडिस अऊ पोरा तिहार मनाय गिस हवय। महूँ घलो सोशल मीडिया के अब्बड़ परेमी अव, सम्मार के बड़े बिहनिया सूत उठ के सबले पहेली मोबाइल देखेव, कई झन संगी मन इस्टेटस डाले रिहिन “आप मन ल पोला तिहार के बधाई हो, पोला तिहार के बधाई हो” अऊ कुछ संगी मन के पोस्ट म पोरा तिहार लिखे रहिस, अइसने बधाई तो आन बछर घलो आवय लेकिन मोर माथा ठनकिस एसो। हमन तो पुरखा ले पोरा तिहार मनात आत हन त फेर ई पोला के का चक्कर ये? संगी हो ई चक्कर ह अऊ कछु नई होईस, हिंदीकरण के फेर म अरथ के अनअरथ हावे। छत्तीसगढ़ी म पोरा के अरथ होथे धान म पोर फूटना अऊ पोटरी पड़ना। छत्तीसगढ़ी म पोला के अरथ होथे छेदा, भुलका, भोंगरा, पोलपोला। हमन छत्तीसगढ़िया अन संगी हो अऊ हमन पोरा मनाथान पोला नई, काबर कि इ दिन हमर धान ह गरभ धरथे। त सोचेव कि काबर न एक ठी ब्लॉग पोरा के अरथ म लिखय जाय।



          संगवारी हो, जइसन सुरता ले तीज-तिहार मानत देखत आत हन ओ सब ला सुरता करके लिखत हव। छत्तीसगढ़ राज के भीने भीने धरी म भीने भीने रकम ले आनी बानी के तीज-तिहार मनाथय। हमर राज के सब्बो तीज-तिहार मन खेती-किसानी अऊ परकिरती ले जुडे हवय जोन हर पुरखा ले परकिरती ल सज धज के राखे के संदेसा देवत आत हवय। इसने एक ठी तिहार ये “पोरा”, जोन ल खेती-किसानी के दूसरा चरन म मनाय जाथे। संगी हो हमर राज के पहिली तिहार आथे “हरेली”, जोन ल खेती-किसानी के पहिली चरन पूरा होय के बखत मनाथे। ए बखत म पूरा धरती हर हरियर-हरियर रूप धर के सजे समरे रथय, अऊ किसनहा मन धान-पान बो-बोवई, चाल-चाली अऊ बियास के सके रथय। अहू हरेली ल आजकाल हरियाली तिहार कहत हें अऊ इस्कूल, सहर नगर म तो गिरिन डे कहत मनात हावे। हरेली के नाम ले मनाय म का दुःख हे मोला तो समझ म नई आइस।

खेती-किसानी के दूसरा चरन पूरा होथे जब खेतिखार के नींदा निंदाई के बूता पूरा हो जाथय। ई बेरा ह संगी हो, धान के पेड़वा ले पोर फुटे के, पोटरी आय के, पोठ पान धरे के बेरा रथे, जेम्मा थोरकन दिन पाछू बाली निकलथे अऊ पोठ्ठा पोठ्ठा दाना भरथय। एक रिकिम के समझ सकत ह ई बेरा हर धान के गरभ धरय के रथय। धान म पोर फूटे के हंसी-खुशी म हमर पुरखा मन पोरा तिहार मनाय लगिन। संगी हो, ई दिन माटी के नंदिया बइला बना के ओकर पूजा करे जाथे। नंदिया बइला ल माटी के दू ठन नानचुन नानचुन मटकी म ठेठरी-खुरमी, गुजकलिया बना के परसाद चढ़ाये जाथे, जेला पूरा परिवार मिल-बाँट के खाथय। इही दिन जोन परिवार ह शंकर भगवान ले कुछु सरधा राखे रथे या फेर कुछु बदना बदे रथें त भोले बाबा के सवारी बर बिधि सनमत पूजा-पाठ करके  नंदिया बइला छोड़य जोन ला गोल्लर ढीले कहे जाय। गोल्लर छोड़ के हमर पुरखा मन गऊ वंश के रक्षा-संरक्षण करे के संदेसा आने वाला पीढ़ी मन ला देत आय हें। पोरा के दिन के नंदिया बइला हर पोरा बइला कहाईस। संगी हो छत्तीसगढ़ के भीने भीने धरी म भीने भीने ढंग ले पोरा तिहार मनाय जाथे लेकिन सब्बो ढंग मन एके संदेसा देथे, खेती-किसानी अऊ परकिरती के संरक्षण करव।

संगी हो अगर हमन छत्तीसगढ़ी परंपरा ल माने नई सकत हन त कम से कम जाने के परियास तो कर सकत हन का! संगी हो, हमर इतिहास, हमर संस्कृति, हमर सभ्यता, हमर रहन-सहन, हमर बोली-भाखा, हमर रीती-रिवाज, हमर तीज-तिहार मन ल हमन धर-छबक के नई राखबो त काकर बबा के जात हे, कोन ल पड़े हे! परदेशिया थोड़े करिही जी, हमी मन ल ही करे बर लागही। जादा तो नई लिखव संगी हो, लेकिन जतका लिखे हों वो सब मन मोरेच मन के विचार ये, जोन ला नानकुन ले देखत सुनत करत आत हन, कोन्हू अन ले कुछु कॉपी-पेस्ट नई करे हव। अतका निवेदन करत हों कि छत्तीसगढ़ी ल घलो मान-सम्मान दव, छत्तीसगढ़ी सबद मन के अरथ ल अनअरथ झन करव, काबर “छत्तीसगढ़िया-सबले बढ़िया” हावे त संगी हो “गुर के भेली-छत्तीसगढ़ी बोली” हावे।

संगवारी हो, आप मन घलो पोरा तिहार अऊ छत्तीसगढ़ी सबद मन के बारे म इसने कुछु जानत हव त आप मन के विचार ल घलो मोर ब्लॉग म टिपण्णी कर देवव, जय-जोहार, राम राम....

आप मन के,

दाता राम नायक

रायगढ़, छत्तीसगढ़

 

 

 

 

 

रविवार, 4 अगस्त 2024

कोला–बारी

कोला-बारी


ए दाऊ, जा तो कचरा ल रचकन कोला अन फेंक आ... 
ए नोनी, जा तो बारी ले दू पान धनिया टोर आन... 
ह हो, बाजार जात ह त बने फरही तिसने दू ठन हाईबिरिड लउकी के बिजहा लेत अइहा, बारी कोती कोंच दे रबो...
        
                एक बखत इसने कहत-सुनत सब्बोच घर-द्वार म मिल जात रिहिस। जादा दिन नई होवत हे, मोर सुरता म होत होही त कोन्हूँ आठ दस बरस.....जोन टईम गाँव-देहात के गरीब-दुखी, दाऊ-गौटिया सब्बोच के घर म दू हाथ के कोला बारी होबेच करत रिहिस जेमा गोबर- कचरा अऊ कुछु कहीं साग-सालन जगाये के रहे। छोटे हांड़ी के छोटे, अऊ बढ़खा हांड़ी के बढ़खा कोला बारी। एक जोवार के साग तो निकलेच जाय, जानत ह जी कोन बखत म निकले एक जोवार के साग ?.......ओई बखत म जोन खानी सहर-नगर म साग-भाजी के दाम हर अगास छुवय रेहे। ओ महंगी म हमन गाँव-देहात के रहोइय्या मन ल साग-भाजी बिसा के खाय बर नई लागत रिहिस, ओई टईम म हमन खान का-का साग; खोटनी भाजी, सादा भाजी, चेंच भाजी, कांदा भाजी अऊ का का बताव छत्तीसगढ़ के छत्तीस भाजी जान डारव। डोढ़का-तरोई, झुनकी तरोई, कोइलार भाजी, छोटे-छोटे मोट्ठा- मोट्ठा केंवसी रमकलिया, छानी-परवा म चेघत पर्रा पर्रा लउकी, मखना अऊ मखना फुल के चीला, तुमा, करेला-कुंदरू आनी-बानी के साग सालन होत रिहिस। अतकिहा हो जाय त बढ़खा बई का करे.... खोयला बना डारे, भाटा अऊ पताल के खोयला तो सुरता होहिच तहूँ मन ल। बाजार ले भाजी-पाला बिसाय बर तो किरिया रिहिस समझव, कभू ददा-दई बिसा के नई लानय, घर म ही हो जात रिहिस।



                ओई दू हाथ कोला के कोनहा म नानकुन खांचा रहे जेमा गौ-गरु के रद-बद, घर-द्वारी के कचरा मन ल फेंका जाय जोमन सर-गल के अब्बड़ बढ़िया करिया खातु बनय। ऐला घुरवा घलो कथन अऊ खातु खांचा घलो। खातु खांचा के खातु हर न, अतिश्योंक्ति नई होही ह त आजकल के जाईम के बरोबर रहे जेमा नाइट्रोजन, फास्फोरस, अऊ पोटाश के संगे संग सूक्षम तत्व मन के भरमार रहे। माटी म आरगेनिक कारबन अऊ हुमिक एसिड बढ़ाय बर मुखिया तो गोबर खातु ही हर रहे अऊ आभी भी हवय। ऐ खातु हर माटी ल भुरभुरा बना के राखे तभो तो बैला नांगर गढ़िच जाय, ए खानी तो छोटे-मोटे टेक्टर नांगर घलो नई गढ़े बर खोजत हे। कारन ओई ये गोबर खांचा के खातु आब लुका गे, अऊ कोई कोई बनात भी हें त खांचा म नई बनात हे, एमा कुछु गुन नई रहे संगी। जादा नई होय ले खांचा के उपरेच म दू दाना लाली भाजी के बीज ल छींच दन त पिर्रा भर ले बढ़खा बढ़खा पान के करियांहू लाली भाजी भदभदा जाय।

                जतकी सुरता करत जात हो बालपन में ओतकी समात जात हो। नान नान रहेन त खोल-बहरी म खेलत खेलत कोला-बारी म जा के कइंचा कइंचा साग मन ल खा खवी के फेर खेले बर भाग जान। ओ खानी नई जानत रहेन कि इसने कइंचा खवाई ल सलाद कथे कहिके। घाम महिना म ददा-कका मन खांचा के खातु ल पाले बर बैला अऊ भईसा गाड़ी फांदे त हमन के तो जिसे तिहार रहे। गाड़ी चेघे बर मिले, खेत-खार घुमे बर मिले, अऊ अर-तता अर-तता अर-तता तता तता तता......कहत कहत मुहूँ नई पिराय। एक घ के बात ये, होही बीस साल पहिली के, पढ़-लिख के सकें त घर म खटिया टोरत पड़े रहों। त एक दिन मोर सियान आइस अऊ कहिस बाबू जा कोला ले एक गोलर खातु जोर के आजा दू ठी रुपिया दिहुं, में कहें पचास ठी देबे त बता...सियान किहिस दू ठन में करबे त कर नई तो कोर्रा लगाहूँ। में कहें चालीस, तीस, बीस लेकिन सियान तो एके ठी रट लगाय रिहिस “कोर्रा लगाहूँ”, ले दे के पांच ठी रुपिया म बात बनिस। घंटा भर नई लागिस एक गोलर खातु जोर देंव, मने मन खुश...घंटा भर म पांच रुपिया पाक गे करके, लेकिन होईस वई जोन हमर जमाना म सबो टूरा मन संग होय......न कोर्रा मिलिस न रुपिया मिलिस, गिलास भर के पसीना निकलिस। एकक घ सोचथव, ओ खानी पांच रुपिया एक गोलर के पा जाय रथे त एक दिन में तो बीस रुपिया बना डारे रथे, तहां सियान करा ले टेंडर लेय रथे खातु पाल के आ जात हो दस देबे, नांगर जोत देत हो, धान बो देत हो, पूरा खेती ल कर देत हो.... अतकी देबे ओतकी देबे.....आज तक तो कम से कम छोटे मोटे ठेकेदार बनिच जाय रथे।

                संगवारी हो जमाना के चाल चलन हर जतकी जल्दी अऊ जोर से बदलिस हे न कि एकर ले सहर-नगर का, गंवई-देहात घलो नई बच सकिस हे। हमरो गंवई म मेल्हा-बनिहार के दुकाल होत गिस, मसीन मन ले खेती होत गिस, मसीन के आय ले गौ-गरु लुकात जात हें, गंवई के लोभ-लईका मन घलो बड़े बड़े सहर नगर पढ़े-लिखे जात हें, नौकरिहार मन सहर म हांड़ी बौरत जात हें, गाँव म घलो आब बढ़खा हांड़ी के रन्धोइय्या नई ये, परिवार बाढ़त जात हे, डीही-डांगर कम होत जात हे, आब तो घर बनाय बर डीही नई मिलत हे त कोला-बारी बर कहाँ मिलही। गाँव जान के आभी घलो कोला-बारी के महत्ता हर बने हे लेकिन पहिली कस अब कोला-बारी के कमोइय्या नई बाचिन। एक झी कका आय रिहिस जोन हर घुरवा अऊ बारी ल फेर जियाये के बढ़िया परयास करिस, लेकिन नदिया हर ओती नई बोहाईस जेती बोहाना रिहिस। जादा नई कहो लेकिन अतकी कहिहुंच कि भारत के आत्मा आज घलो गाँव म बसे हे तभो तो देश के जी डी पी म खेती-किसानी के बड़ भारी योगदान चलत आत हे। इ योगदान ल अऊ जादा बढ़ा सकत हन ओकर बर सरकार ल रचकुन खेती-बारी के डाहर ईमानदारी से देखे बर लागही।

                त संगवारी हो आज बर अतकी, फेर बेरा म गोठियाबो अऊ कुछु गाँव-गंवई के गोठ......जय जोहार।

लेखक
दाता राम नायक
रायगढ़, छत्तीसगढ़

शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

ओपीएस की बहाली चाहिए

हमें न तो भुखमरी चाहिए, न कंगाली चाहिए,
सफेद बालों के साथ कभी, न बदहाली चाहिए।

जिनके हुक्मों के पालन में, अपनी जवानी गयी,
उन हाकिमों से ओपीएस, की बहाली चाहिए।

जीवन भर सेवा देने का, थोड़ा मान चाहिए,
न तिरस्कार, न एनपीएस, की मलाली चाहिए।

धक्केशाही निज सेवक पर, है क्या ये रीत सही?
बेबस बुढ़ापा न हो अपना, वो खुशाली चाहिए।

सरकारें जिसकी भी आये, ऐ दोस्त लड़ते चलो,
अपना भविष्य हमको सबको, बस उजाली चाहिए।

साथ हमारे जुड़ते चलिए, बनता रहे कारवां,
हमको कुछ जबाबी चाहिए, कुछ सवाली चाहिए।

जोश न थमने पाये यारों, मंजिल अभी दूर है,
जो उमंग अब हमें चाहिए, वह धमाली चाहिए।

आशा की जलती रहे दिया, गहरे अंधकार में,
अभी बनवास बीत रही है, फिर दिवाली चाहिए।

कह देना सत्ताधीशों को, अब ये जुल्म बंद हो,
हो जहां हमारी हित वैसी, विधि-प्रणाली चाहिए।

रचनाकार :- दाता राम नायक "Mr. DR"
सुर्री, जिला:- रायगढ़ (छग)

सोमवार, 17 अगस्त 2020

मातृभूमि की वंदना

अबीर गुलाल बनकर जिसकी,

धूल उड़ा करती है,

जिसकी खेतों के कीचड़ में,

कनक उगा करती है,

जिसकी सौंधी सौंधी मिट्टी,

जन जन का चंदन है,

उस मातृभूमि भारत माँ का,

कोटि कोटि वंदन है।


जिसकी गोद में खेलते हैं,

कई धर्म की नस्लें,

जिसकी छाती में पकते हैं,

कई तरह की फसलें,

जहाँ प्रकृति के हर कोने का,

होता अभिनंदन है,

उस मातृभूमि भारत माँ का,

कोटि कोटि वंदन है।


जिसकी जमीन पर जन्में हैं,

परम वीर लाखों में,

मुठ्ठी में मसला करते हैं,

दुश्मन को हाथों में,

जिसकी सेना धीरज वाली,

पर शत्रु निकंदन है,

उस मातृभूमि भारत माँ का,

कोटि कोटि वंदन है।


कण कण जिसकी ज्ञान ध्यान से,

तीर्थों सा पावन है,

तपोबल जहाँ तपस्वियों की,

सदा ही सुहावन है,

मुनि-ऋषियों के उपदेशों का,

जहाँ सौम्य स्पंदन है,

उस मातृभूमि भारत माँ का,

कोटि कोटि वंदन है।


जिसकी सौंधी सौंधी मिट्टी,

जन जन का चंदन है,

उस मातृभूमि भारत माँ का,

कोटि कोटि वंदन है।

उस मातृभूमि को दाता का,

कोटि कोटि वंदन है....

कोटि कोटि वंदन है....


{अबीर- सुगन्धित चूर्ण (aromatic pawder), कनक- सोना, निकंदन- संहार करना, सुहावन- संवेग (vibration)}



          -:दाता राम नायक "DR"

           ग्रा.कृ.वि.अधि.- कुसमुरा

                  रायगढ़ (छ.ग.)



मेरे मृत्युंजय

 कर दिया है मैने अपना सारा जीवन तेरे चरणों में अर्पण मुझे किसका लागे डर? अब किसका लागे भय? मेरे मृत्युंजय मेरे मृत्युंजय.... मेरा रास्ता भी ...