हर कोई चाहता है,
दो चार पैसे ज्यादा कमाना,
मोटी जमा पूँजी,
अच्छी सी जिंदगी,
और भर पेट बढ़िया खाना।
इसके लिए
दिमागवाले, दिमाग लगाते हैं
पैसे वाले, पैसे लगाते हैं
उसी तरह ये मजदूर,
अपने-अपने खून-पसीने लगाते हैं।
दो वक्त की रोटी नसीब रहे
बस इतनी सी मजदूरी है,
और उसके घोंसले में
माँ-बाप, भाई-बहन, बीवी-बच्चे,
जिम्मेदारी पूरी की पूरी है।
बढ़ती हुई महँगाई में,
मामूली मजदूरी से,
जरूरतें कैसे पूरी हो?
यहाँ हजारों की तनख्वाह भी,
कम पड़ रहें हैं, लोगों को।
कहते हैं
लंका में सोने की मजदूरी,
जरा सी बच जाए तो जेबें भर जायें,
इसी अभिलाषा में लोग,
कर जाते हैं........"पलायन।"
मगर संकट की घड़ी में,
सबके आशियाने टूट गये,
सांसों के लाले पड़ गये,
फिर, क्या अमीर, क्या गरीब,
सभी करने लगे....."पलायन से प्रतिपलायन।"
परदेश वाले लौट आये,
अपने पुराने बसेरे में,
किन्तु पसीने लगाने वालों का खत्म नही हुआ,
सिर पर समान, गोद में संतान,
हाथों में हाथ लेकर, "पलायन से प्रतिपलायन....."
रचनाकार:- दाता राम नायक "DR"