कोला-बारी
ए दाऊ, जा तो कचरा ल रचकन कोला अन फेंक आ...
ए नोनी, जा तो बारी ले दू पान धनिया टोर आन...
ह हो, बाजार जात ह त बने फरही तिसने दू ठन हाईबिरिड लउकी के बिजहा लेत अइहा, बारी कोती कोंच दे रबो...
एक बखत इसने कहत-सुनत सब्बोच घर-द्वार म मिल जात रिहिस। जादा दिन नई होवत हे, मोर सुरता म होत होही त कोन्हूँ आठ दस बरस.....जोन टईम गाँव-देहात के गरीब-दुखी, दाऊ-गौटिया सब्बोच के घर म दू हाथ के कोला बारी होबेच करत रिहिस जेमा गोबर- कचरा अऊ कुछु कहीं साग-सालन जगाये के रहे। छोटे हांड़ी के छोटे, अऊ बढ़खा हांड़ी के बढ़खा कोला बारी। एक जोवार के साग तो निकलेच जाय, जानत ह जी कोन बखत म निकले एक जोवार के साग ?.......ओई बखत म जोन खानी सहर-नगर म साग-भाजी के दाम हर अगास छुवय रेहे। ओ महंगी म हमन गाँव-देहात के रहोइय्या मन ल साग-भाजी बिसा के खाय बर नई लागत रिहिस, ओई टईम म हमन खान का-का साग; खोटनी भाजी, सादा भाजी, चेंच भाजी, कांदा भाजी अऊ का का बताव छत्तीसगढ़ के छत्तीस भाजी जान डारव। डोढ़का-तरोई, झुनकी तरोई, कोइलार भाजी, छोटे-छोटे मोट्ठा- मोट्ठा केंवसी रमकलिया, छानी-परवा म चेघत पर्रा पर्रा लउकी, मखना अऊ मखना फुल के चीला, तुमा, करेला-कुंदरू आनी-बानी के साग सालन होत रिहिस। अतकिहा हो जाय त बढ़खा बई का करे.... खोयला बना डारे, भाटा अऊ पताल के खोयला तो सुरता होहिच तहूँ मन ल। बाजार ले भाजी-पाला बिसाय बर तो किरिया रिहिस समझव, कभू ददा-दई बिसा के नई लानय, घर म ही हो जात रिहिस।
ओई दू हाथ कोला के कोनहा म नानकुन खांचा रहे जेमा गौ-गरु के रद-बद, घर-द्वारी के कचरा मन ल फेंका जाय जोमन सर-गल के अब्बड़ बढ़िया करिया खातु बनय। ऐला घुरवा घलो कथन अऊ खातु खांचा घलो। खातु खांचा के खातु हर न, अतिश्योंक्ति नई होही ह त आजकल के जाईम के बरोबर रहे जेमा नाइट्रोजन, फास्फोरस, अऊ पोटाश के संगे संग सूक्षम तत्व मन के भरमार रहे। माटी म आरगेनिक कारबन अऊ हुमिक एसिड बढ़ाय बर मुखिया तो गोबर खातु ही हर रहे अऊ आभी भी हवय। ऐ खातु हर माटी ल भुरभुरा बना के राखे तभो तो बैला नांगर गढ़िच जाय, ए खानी तो छोटे-मोटे टेक्टर नांगर घलो नई गढ़े बर खोजत हे। कारन ओई ये गोबर खांचा के खातु आब लुका गे, अऊ कोई कोई बनात भी हें त खांचा म नई बनात हे, एमा कुछु गुन नई रहे संगी। जादा नई होय ले खांचा के उपरेच म दू दाना लाली भाजी के बीज ल छींच दन त पिर्रा भर ले बढ़खा बढ़खा पान के करियांहू लाली भाजी भदभदा जाय।
जतकी सुरता करत जात हो बालपन में ओतकी समात जात हो। नान नान रहेन त खोल-बहरी म खेलत खेलत कोला-बारी म जा के कइंचा कइंचा साग मन ल खा खवी के फेर खेले बर भाग जान। ओ खानी नई जानत रहेन कि इसने कइंचा खवाई ल सलाद कथे कहिके। घाम महिना म ददा-कका मन खांचा के खातु ल पाले बर बैला अऊ भईसा गाड़ी फांदे त हमन के तो जिसे तिहार रहे। गाड़ी चेघे बर मिले, खेत-खार घुमे बर मिले, अऊ अर-तता अर-तता अर-तता तता तता तता......कहत कहत मुहूँ नई पिराय। एक घ के बात ये, होही बीस साल पहिली के, पढ़-लिख के सकें त घर म खटिया टोरत पड़े रहों। त एक दिन मोर सियान आइस अऊ कहिस बाबू जा कोला ले एक गोलर खातु जोर के आजा दू ठी रुपिया दिहुं, में कहें पचास ठी देबे त बता...सियान किहिस दू ठन में करबे त कर नई तो कोर्रा लगाहूँ। में कहें चालीस, तीस, बीस लेकिन सियान तो एके ठी रट लगाय रिहिस “कोर्रा लगाहूँ”, ले दे के पांच ठी रुपिया म बात बनिस। घंटा भर नई लागिस एक गोलर खातु जोर देंव, मने मन खुश...घंटा भर म पांच रुपिया पाक गे करके, लेकिन होईस वई जोन हमर जमाना म सबो टूरा मन संग होय......न कोर्रा मिलिस न रुपिया मिलिस, गिलास भर के पसीना निकलिस। एकक घ सोचथव, ओ खानी पांच रुपिया एक गोलर के पा जाय रथे त एक दिन में तो बीस रुपिया बना डारे रथे, तहां सियान करा ले टेंडर लेय रथे खातु पाल के आ जात हो दस देबे, नांगर जोत देत हो, धान बो देत हो, पूरा खेती ल कर देत हो.... अतकी देबे ओतकी देबे.....आज तक तो कम से कम छोटे मोटे ठेकेदार बनिच जाय रथे।
संगवारी हो जमाना के चाल चलन हर जतकी जल्दी अऊ जोर से बदलिस हे न कि एकर ले सहर-नगर का, गंवई-देहात घलो नई बच सकिस हे। हमरो गंवई म मेल्हा-बनिहार के दुकाल होत गिस, मसीन मन ले खेती होत गिस, मसीन के आय ले गौ-गरु लुकात जात हें, गंवई के लोभ-लईका मन घलो बड़े बड़े सहर नगर पढ़े-लिखे जात हें, नौकरिहार मन सहर म हांड़ी बौरत जात हें, गाँव म घलो आब बढ़खा हांड़ी के रन्धोइय्या नई ये, परिवार बाढ़त जात हे, डीही-डांगर कम होत जात हे, आब तो घर बनाय बर डीही नई मिलत हे त कोला-बारी बर कहाँ मिलही। गाँव जान के आभी घलो कोला-बारी के महत्ता हर बने हे लेकिन पहिली कस अब कोला-बारी के कमोइय्या नई बाचिन। एक झी कका आय रिहिस जोन हर घुरवा अऊ बारी ल फेर जियाये के बढ़िया परयास करिस, लेकिन नदिया हर ओती नई बोहाईस जेती बोहाना रिहिस। जादा नई कहो लेकिन अतकी कहिहुंच कि भारत के आत्मा आज घलो गाँव म बसे हे तभो तो देश के जी डी पी म खेती-किसानी के बड़ भारी योगदान चलत आत हे। इ योगदान ल अऊ जादा बढ़ा सकत हन ओकर बर सरकार ल रचकुन खेती-बारी के डाहर ईमानदारी से देखे बर लागही।
त संगवारी हो आज बर अतकी, फेर बेरा म गोठियाबो अऊ कुछु गाँव-गंवई के गोठ......जय जोहार।
लेखकदाता राम नायकरायगढ़, छत्तीसगढ़